भाषा कौसल "शिक्षक परीक्षा के लिए "

by आलोक वर्मा

भाषा कौसल

सीखना

सीखना किसी स्थिति के प्रति सक्रिय प्रतिक्रिया है । हम अपने हाथ में । केला लिये चले जा रहे है । कहीं से एक भूखे बन्दर की उस पर नजर पड़ती है । वह केले को हमारे हाथ से छीनकर ले जाता है । यह भूखे होने की स्थिति में केले के प्रति बन्दर की प्रतिक्रिया है । पर यह प्रतिक्रिया स्वाभाविक है , सीखी । हुई नहीं । इसके विपरीत , बालक हमारे हाथ में केला देखता है । वह उसे छीनता नहीं है , वरन् हाथ फैलाकर माँगता है । केले के प्रति बालक की यह प्रतिक्रिया स्वाभाविक नहीं , सीखी हुई है । जन्म के कुछ समय बाद से ही उसे अपने वातावरण में कुछ - न - कुछ सीखने को मिल जाता है । पहली बार जब वह आग को देखता है तो उसे छू लेता है और जल जाता है । फलस्वरूप उसे एक नया अनुभव होता है । अतः जब वह फिर आग को देखता है , तब उसके प्रति उसकी प्रतिक्रिया भिन्न होती है । अनुभव ने उसे आग को न छूना सिखा दिया है । इसलिए वह आग से दूर रहता है । इस प्रकार सीखना अनुभव द्वारा व्यवहार में परिवर्तन है ।
" सीखने के अर्थ को और अधिक स्पष्ट करने के लिए कुछ प्रमुख परिभाषाएँ इस प्रकार हैं

1:- स्किनर - " सीखना , व्यवहार में उत्तरोत्तर सामंजस्य की प्रक्रिया ।

2:- वुडवर्थ - " नवीन ज्ञान और नवीन प्रतिक्रियाओं को प्राप्त करने की प्रक्रिया सीखने की प्रक्रिया है । 

3:- क्रो व क्रो - सीखना , " आदतों , ज्ञान और अभिवृत्तियों का अर्जन

( 1 ) प्रोक्ति विज्ञान - प्रोक्ति में एक से अधिक वाक्य होते हैं । इन वाक्यों का क्रम तर्कपूर्ण होता है । ये आन्तरिक रूप से आपस में सुसम्बद्ध होते हैं । ये वाक्य आपस में मिलकर अर्थ की दृष्टि से पूर्ण होते हैं । 

( 2 ) वाक्य विज्ञान - वाक्य सार्थक शब्दों का समूह है जो भाव को व्यक्त करने में अपने आप में पूर्ण है । इस प्रकार पूर्ण अर्थ प्रकट करने वाले शब्दों को वाक्य कहते हैं । वाक्य भाषा की सहज इकाई है । वाक्य में अर्थ की पूर्णता हो सकती है और नहीं भी । वाक्य , व्याकरण की दृष्टि से पूर्ण होता है । 

( 3 ) अर्थ विज्ञान - किसी वाक्य , वाक्यांश , रूप , शब्द , मुहावरा आदि को कर्मेन्द्रियाँ जब ग्रहण करती है तो जो मानसिक प्रतीति होती है . वही अर्थ हैं । अर्थ की प्रतीति दो प्रकार से होती है - आत्म अनुभव तथा पर अनुभव । आत्म अनुभव में हम स्वयं किसी चीज का अनुभव करते हैं , जैसे - मिठाई खाने पर मीठेपन का अहसास हमें स्वयं को होता है । पर अनुभव में वह अनुभव शामिल किया जाता है जो हमारी पहुँच से बाहर होता है । अर्थात् दूसरों के अनुभवों के अनुसार ही हमें चलना पड़ता है ,जैसे - वह बीमारी जिसे आपने कभी नहीं झेला , लेकिन दूसरों के अन । 

हमें उसका अहसास होता है । भारतीय परम्परा के अनुसार अर्थ बोध के ना साधन है ।

१ . व्यवहार 2 . व्याख्या 3 . उपमान 4 . प्रकरण 5 . आप्तवाक्य 6 . शब्दकोष 7 . प्रकरण 8 . व्याकरण 9. ज्ञान का सानिया

भाषा कौशल 

भाषा के दो रूप हैं - 

मौखिक और लिखित । सुनते और बोलते सा . . मौखिक भाषा का प्रयोग होता है 

एव पढ़ते और लिखते समय लिखित भाषा । प्रयोग होता है । बालक सुनकर , पढ़कर , बोलकर और लिखकर परस्पर संवाद कर है । इन्हीं योग्यताओं का विकास करना भाषा की शिक्षा का मुख्य प्रयोजन है । । इन्हें ही भाषा शिक्षण के कौशल कहा जाता है । 

ये संख्या में चार हैं

 ( क ) सुनकर अर्थ - ग्रहण अर्थात् श्रवण कौशल । । 

( ख ) पढ़कर अर्थ - ग्रहण अर्थात् पठन कौशल । 

( ग ) बोलकर विचार प्रकट करना अर्थात् मौखिक अभिव्यक्ति कौशल । 

( घ ) लिखकर विचार व्यक्त करना अर्थात लेखन कौशल । 

भाषा के कौशल 

विचारों के सम्प्रेषण का माध्यम भाषा है । व्यक्ति भाषा के द्वारा अपनी बात को दूसरों को सुनाता है और दूसरों की बातों को सुनता है , इससे विचारी । में आदान - प्रदान होता है । अतः बालकों को इसमें विचारों के आदान - प्रदान में । कुशल / प्रवीण बनाना ही भाषा की श्रेष्ठता है । हम विचारों की अभिव्यक्ति दी प्रकार से करते हैं , जैसे - बोलकर अथवा लिखकर । इसी प्रकार विचारों का ग्रहण भी दो प्रकार से होता है , जैसे - सुनकर अथवा पढ़कर । इस प्रकार हरु पाते हैं कि भाषा के कौशल के भी चार प्रकार होते हैं - सुनना , बोलना , पदना व लिखना । सुनने व पढ़ने में आन्तरिक मानसिक क्रिया की प्रमुखता है त यह क्रिया अमूर्त है , लेकिन बोलना व लिखना दो क्रियाएँ मूर्त क्रियायें हैं । 

इस मानसिक क्रिया के साथ - साथ मुख , हाथ , आँख आदि भी सक्रिय रहत । 

भाषा कौशल की विशेषता 

1:- भाषा कौशल को प्राप्त करने के लिए प्रशिक्षण तथा अभ्यास आवश्यके है। 

2:- भाषा कौशल में शब्दों की अन्तः प्रक्रिया होती है । 

3:- भाषा कौशल का उद्देश्य बोधगम्यता है । 

4:- भाषा के कौशल में प्रत्यक्षीकरण तथा मानसिक व्यवस्था की भी आवश्य होती है । 

5:- भाषा कौशल में ज्ञानेन्द्रियाँ तथा कर्मेन्द्रियाँ क्रियाशील होती है । 

6:- भाषा कौशल सम्प्रेषण का साधन है ।

1 . सुनना या श्रवण कौशल 

श्रवण कौशल क्या है ? 

किसी भी व्यक्ति के द्वारा प्रयुक्त ध्वनियाँ , शब्दों एवं भावों को कानों सनकर अर्थ - ग्रहण करने की क्रिया ' श्रवण ' कहलाती है । वक्ता जिस उद्देश्य अथवा अभिप्राय से अपने भावों या विचारों की अभिव्यक्ति कर रहा है , उसे पूरी तरह ध्यानपूर्वक सुनकर उसके अथवा अभिप्राय को ग्रहण करने की योग्यता को ही श्रवण कौशल ' । कहते हैं । 

पूर्व - प्राथमिक स्तर पर सुनना कौशल में दक्षता 

पर्व - प्राथमिक स्तर पर बालकों को मातृभाषा से परिचित कराया जाता और उनके सुनने और बोलने के कौशलों में दक्षता प्राप्त कराई जाती है । के लिए यह आवश्यक है कि उन्हें सुनने के अधिक - से - अधिक अवसर प्रदान कराये जायें । इसके लिए निम्नलिखित उपाय काम में लाये जा सकते ।

1 शिशुओं से , उनके परिचित विषयों पर बातचीत की जाये । 

2 . उनके स्तर के अनुसार छोटी - छोटी और रोचक कहानियाँ सुनायी जायें । 

3 . उनके स्तरानुसार रोचक और छोटे - छोटे गीत सुनाये जायें । 

4 . शिशुओं को कानों से ठीक - ठीक सुनाई देता है , इसकी जाँच करायी जाये । कान का रोग होने पर उसका उपचार कराया जाये । 

5 . शिशुओं के बैठने और खड़े होने के आसन ठीक - ठीक हो , इस ओर । अध्यापक विशेष ध्यान दें । 

प्राथमिक स्तर पर सुनना कौशल में दक्षता 

प्राथमिक कक्षाओं में आने पर . 

( क ) बच्चों की माँसपेशियाँ सशक्त हो जाती हैं । 

( ख ) उनकी ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ अधिक सक्रिय हो जाती है । 

( ग ) इस स्तर पर उन्हें पढ़ना - लिखना सिखाया जाता है और पाठ्य - पुस्तकों का सहारा लिया जाता है 

। इस स्तर पर श्रवण कौशल में दक्षता प्राप्त कराने के लिए निम्न उपाय काम में लाये जा सकते हैं

 1:- बच्चों के स्तरानुसार उनसे सामान्य तथा विद्यालय सम्बन्धी विषयों पर वार्तालाप किया जाये । 

2:- उनके स्तरानुसार रोचक कहानियाँ सुनाई जायें । 

3:- बच्चों के स्तर को ध्यान में रखकर रोचक गीत सुनाये जायें । 

4 . उन्हें चित्र दिखाकर बातचीत की जाये । 

5:- उन्हें रेडियो द्वारा प्रसारित बाल - कार्यक्रम सुनाये जायें । 

उच्च प्राथमिक स्तर पर सुनना कौशल में दक्षता 
इस स्तर पर आते - आते 

( क ) बालकों को मातृभाषा का कुछ अधिक ज्ञान हो जाता है । 

( ख ) सुनने बोलने , पढ़ने और लिखने में कुछ अधिक अभ्यस्त हो जाते है ।

(ग):- इस स्तर पर बालक मातृभाषा के अतिरिक्त अन्य भाषाएँ भी सीखते हैं । इन बातों को सामने रखते हए अवण कौशल में दक्षता के लिए । नम्नलिखित उपाय काम में लाये जा सकते हैं 

1 . बालकों की पाठ्य - पुस्तक में दिये गये पाठों का सरस्वर आदर्श वाचन कराया जाये । 

2 . आदर्श वाचन के बाद पठित सामग्री पर प्रश्न पूछे जायें । 

3 . वाद - विवाद प्रतियोगिता , भाषण , अन्त्याक्षरी , नाटक आदि साहित्यिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाये । 

4 . बालकों को आकाशवाणी , ध्वनि - लेख यन्त्र ( टेपरिकॉर्डर तथा दूरदर्शन ) आदि से कहानी , नाटक तथा बाल - कार्यक्रम सुनाये जायें । 

 5 . बालक जो कुछ भी देखें सुनें , उस पर उनसे बातचीत की जाये । 


2 . बोलना या मौखिक अभिव्यक्ति कौशल में दक्षता 

बोलना या मौखिक अभिव्यक्ति कौशल क्या है ? 

 सामान्य रूप से कण्ठ , मुख - विवर और नासिक से अर्थपूर्ण ध्वनि उत्पन्न करना बोलना कहलाता है । भाषा की दृष्टि से बोलने से तात्पर्य है - " अपने भावों और विचारों को मौखिक भाषा द्वारा व्यक्त करना । " यहाँ भाव और विचार बोलकर या मौखिक भाषा द्वारा अभिव्यक्त किये जाते हैं । इस प्रकार हम कह सकते हैं - " जब व्यक्ति ध्वनियों के माध्यम से . मुख के अवयवों की मदद से , उच्चरित भाषा का प्रयोग करते हुए , अपने विचारों को व्यक्त करता है , तो उसे मौखिक अभिव्यक्ति या बोलना कहा जाता है । 

बोलना कौशल में दक्षता 


बालकों में बोलना कौशल में दक्षता प्राप्त करने का तात्पर्य है - बालक अपने भाव तथा विचार मौखिक भाषा के माध्यम से अभिव्यक्त करने की क्रिया में निपुण र हो । इसके लिए आवश्यक है कि उनमें बोलने के आवश्यक तत्त्वों का विकास किया जाये । इस कार्य में धैर्य रखना चाहिए , क्योंकि इसमें समय लग सकता है , इसमें न प्रत्येक स्तर पर प्रयास की आवश्यकता होती है । 


पूर्व - प्राथमिक स्तर पर बोलना कौशल में दक्षता

शैशव काल , भाषा सीखने की दृष्टि से बड़ा महत्वपूर्ण है । इस स्तर पर पड़े भाषायी संस्कार स्थायी होते हैं । इस स्तर पर शिशुओं को भाषा के सामान्य स्तर से परिचित कराया जाता है । उन्हें सुनने और बोलने के कौशलों में दक्ष किया जाता है । इसके लिए आवश्यक है कि उन्हें सुनने और बोलने के अधिक - से - अधिक अवसर दिये जाये । इसके लिए निम्नलिखित उपाय किये जा सकते हैं 

1 . शिशु अपनी बात कहने में स्वतन्त्र हो । 

2 . उन्हें उनके स्तरानुसार छोटी - छोटी और रोचक कहानियाँ सनायी जायें । 

3 . उनसे परिचित विषयों पर बातचीत की जाये । 

4 . होशिशुओं से उनके द्वारा याद किये गये छोटे - छोटे गीतों को सुना जाये । 

5 . उनके बोलने में बाधा न डाली जाये ।


प्राथमिक स्तर पर बोलना कौशल में दक्षता

प्राथमिक कक्षा में प्रवेश लेते समय 

( क ) बालकों की मांसपेशियाँ सशक्त होने लगती है । ( ख ) उनकी कर्मेन्द्रियाँ और ज्ञानेन्द्रियाँ अपेक्षाकृत अधिक क्रियाशाल हो जाती हैं । इस स्तर पर बालकों में बोलने के कौशल में दक्षता के लिए निम्न उपाय काम में लिये जायें 

1 . जिन विषयों में बालकों की रुचि हो . उन पर बातचीत की जाय । 

2 जो कहानियाँ उन्हें याद हों , वे सुनी जायें । 3

 . जो बालगीत उन्हें स्मरण हो , उन्हें सुनाने को कहा जाये । 

4 . चित्र दिखाकर बातचीत की जाये । 

5 . बालकों को आपस में स्वतन्त्र बातचीत के अवसर प्रदान किये जाये । 

6 . उन्हें रेडियो , दूरदर्शन आदि से समाचार , कहानी सुनवाकर अपने । शब्दों में सुनाने के लिए कहा जाये ।

  उच्च प्राथमिक स्तर पर बोलना कौशल में दक्षता 

जब बालक इस स्तर पर पहुँचते हैं , तो उन्हें मातृभाषा के सामान्य रूप का कुछ अधिक ज्ञान हो जाता है । वे सुनने और बोलने में कुछ अधिक दक्ष हो जाते हैं । वे धैर्य और आत्मविश्वासपूर्वक बोल सकते हैं और बोलते समय हाव - भाव का भी प्रदर्शन करने लगते हैं । इस स्तर पर बोलने में और अधिक दक्षता लाने के लिए निम्न उपाय काम में लाये जा सकते हैं

 1 . बालकों की पाठ्य - पुस्तक के पाठों का सस्वर वाचन करवाया जाये । 

2 . पाठ्य - पुस्तक में जो कहानी , निबन्ध , नाटक आदि हों , उनका सारांश सुना जाये । 

3 . समय - समय पर विद्यालय में वाद - विवाद , लघु भाषण , अभिनय , अन्त्याक्षरी आदि प्रतियोगिताएँ आयोजित की जायें और बालकों को उनमें भाग लेने के लिए प्रोत्साहित किया जाये । 

4 . बालकों से प्रसंगानुसार प्रश्न पूछकर उत्तर प्राप्त किये जायें । 

5 . उन्हें रेडियो , दूरदर्शन आदि के कार्यक्रम सुनवाये और दिखाये जायें । फिर उनकी चर्चा कक्षा में की जाये ।

6 . उनके उच्चारण सम्बन्धी दोष दूर किये जायें । 

  मौखिक भाषा शिक्षण के उद्देश्य 

वह व्यक्ति सफल वक्ता नहीं हो सकता , जिसमें स्पष्ट शुद्ध , प्रवाहपूर्ण एवं प्रभावोत्पादक अभिव्यक्ति नहीं है । इससे वह अपने व्यक्तित्व की छाप नहीं । छोड़ सकता है अर्थात् मौखिक अभिव्यक्ति का अर्थ एवं उद्देश्य बालकों में कशल अभिव्यक्ति का विकास करना है , जो निम्नलिखित है 

1 . बालकों में स्वाभाविकता से बोलने की क्षमता उत्पन्न करना तथा सरल व स्पष्ट भाषा में परस्पर वार्तालाप की आदता डालना । 

2 . बालकों में पूछे गये प्रश्नों के शुद्ध तथा उचित उत्तर देने की क्षमता उत्पन्न करना । 

3 . बालकों में शिक्षक से संकोच दूर करके व्यक्तित्व का विकास करना । तथा भाषा अध्ययन की योग्यता का विकास करना ।

4 . शब्दों को समझकर उनका उचित समय तथा उचित स्थान करने की क्षमता का विकास करना । 

5 अपने दैनिक जीवन में बालक जो सुनते , पढ़ते व देखते हैं । अर्थपूर्ण व तर्कसंगत अभिव्यक्त करने की क्षमता का विकास ।

मौखिक अभिव्यक्ति की आवश्यकता 

1 . मौखिक अभिव्यक्ति से बालक में सुरक्षा की भावना का विकास होता है तथा परिवार व समाज बालक को स्वीकृति , विश्वास , प्रशंसा न पुरस्कार के द्वारा सुरक्षा की भावना देते हैं । 

2 . नये अनुभवों की प्राप्ति हेतु मौखिक अभिव्यक्ति महत्वपूर्ण है । 

3 . वाक्पटुता तथा शुद्ध उच्चारण हेतु मौखिक अभिव्यक्ति उपयोगी है । 

4 . विरोध प्रदर्शन हेतु भी मौखिक अभिव्यक्ति श्रेष्ठ माध्यम है । 

5 . आत्म - प्रदर्शन के लिए मौखिक अभिव्यक्ति अच्छे अवसर प्रदान करती 


 - मौखिक भाव - प्रकाशन अर्थात् बोलने की शिक्षा देते समय निम्न बातों पर अवश्य ध्यान देना चाहिए 

1 . बालक को शैशवावस्था से ही बोलने की शिक्षा देना प्रारम्भ कर देनी चाहिए । 

2 . प्रारम्भिक अवस्था में बालक के उच्चारण व भाषा की अशुद्धता पर विशेष ध्यान न देकर धारा - प्रवाह के साथ आत्मिक प्रकाशन करने की योग्यता के विकास पर बल दिया जाए । 

3 . बालक को बोलने के अधिकाधिक अवसर प्रदान किये जाएँ । जान - बूझकर ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न न करें जिसमें बालक को बोलने के अधिक अवसर प्राप्त हो ।

4 . भाषा सदेव क्षेत्रवाद , प्रान्तीयता तथा व्याकरण आदि के दोषों से मुक्त होनी चाहिए । 

5 . बालक ज्यों - ज्यों बड़ा होता जाये तो उसके मौखिक भाव - प्रकाशन अशुद्धता तथा उच्चारण को ठीक करते हुए चलना चाहिए । 

मौखिक अभिव्यक्ति के अपेक्षित गुण या विशेषताएँ 

(1) नि संकोच / बिना झिझक के बोलना 

( 2 ) शुद्ध उच्चारण 

( 3 ) शुद्ध भाषा का प्रयोग 

( 4 ) स्वाभाविक एवं स्पष्ट भाषा का प्रयोग 

( 5 ) सशक्त भाषा का प्रयोग 

( 6 ) व्यावहारिक भाषा का प्रयोग 

 ( 7 ) कथन की प्रभाविता।                          ( i ) स्वराघात ( ii ) अनुतान ( iii ) स्वर ( iv ) गति ( v ) यति ( vi ) ध्वनि ( vii ) उचित भाव - भंगिमा या मुद्रा ( viii ) प्रवाह . ( ix ) ओजस्विता

 (8 ) विषय एवं भाव के अनुकूल भाषा का प्रयोग 

( 9 ) अवसरानुकूल भाषा 

( 10 ) भाषा में शिष्टाचार का पालन 


3 . पढ़ना या पठन कौशल में दक्षता 

किसी भी लिखित भाषा को पढ़ने की क्रिया को ' पठन ' या पढ़ना कहा जाता है , जैसे - पत्रिका पढ़ना , समाचार पढ़ना , पुस्तकें पढ़ना आदि । भाषा शिक्षण की दृष्टि से पढ़ने से अभिप्राय है - " किसी भी व्यक्ति के द्वारा लिखित भाषा के अभिव्यक्त भाव एवं विचारों को पढ़कर समझना । 

इसमें प्रमुख तत्त्व हैं - 

1 . अर्थबोध , 

2 . भाव की प्रतीति । 

यह अलग बात है कि पढ़कर अर्थ और भाव को किस सीमा तक समझा गया है । 

पडन दो प्रकार का होता है - 1 . मौखिक पठन , 2 . मौन पठन ।

4 . लेखन कौशल ( लिखना ) 


भाषा के दो रूप होते हैं - लिखित और मौखिक । 

भावों को प्रकट करने के लिए ध्वन्यात्मक संकेतों का प्रयोग मौखिक भाषा कहलाता है तथा यही भाषा लिपिबद्ध कर दी जाये तो लिखित भाषा के रूप में बदल जाती है । ध्वनियों को शुद्ध रूप में बोलने के लिए उच्चारण की शिक्षा जिस प्रकार आवश्यक है उसी प्रकार हिन्दी में लिखित भावाभिव्यक्ति कौशल व देवनागरी लिपि का शिक्षा परम आवश्यक है । 

अर्थ - व्यक्ति अपने विचार दो प्रकार से व्यक्त करता है - ( i ) बोलकर या ( i ) लिखकर । जब दूसरा व्यक्ति समीप ही हो तो व्यक्ति बोलकर अपनी बात या अकट करता है , परन्तु जब दूसरा व्यक्ति दूर है तो या तो हम उस समीप चले जायें या उसे समीप बुला लें और मौखिक रूप से अपने अकट करें अगर यह स्थिति सम्भव नहीं है कि विचार प्रकट करने जब चाहे अपने विचार प्रकट कर सके और जिस व्यक्ति ने अपने प्रकट किये हैं उन्हें जब उसकी इच्छा हो और जहाँ चाहे उन विचारों को ज्ञात कर सके तो ऐसी स्थिति में व्यक्ति जिस विधि का आश्रय लेता है उसे लिखना कहते हैं । 

दूसरे शब्दों में , उच्चरित ध्वनियों को प्रतीकों के रूप में व्यक्त करना ' लिखना है , उन प्रतीकों को अक्षर या वर्ण कहा जाता है । ये प्रतीक या ध्वनि चिह्न लिपि के विकास की अन्तिम व्यवस्था है और इस प्रकार कहें कि भाषा की ध्वनि को लिपिबद्ध करना ही लिखना है । अक्षरों व वर्गों को सुन्दर और सुडौल बनाना ही लिखना है । लिखकर हम अपने विचारों को दूर - दूर तक पहुंचा सकते हैं । शुद्ध , सुनिश्चित एवं स्पष्ट शब्दावली के माध्यम से भावों एवं विचारों के क्रमायोजित लिपिबद्ध । प्रकाशन को लिखित रचना कहते हैं । 

लेखन शिक्षण की आवश्यकता 

भाषा एक सृजनात्मक शक्ति है और विचार - विनिमय का एक साधन है , उसके प्रमुख दो उद्देश्य हैं - प्रथम , भाव - ग्रहण एवं द्वितीय , भाव - प्रकाशन । भाव - प्रकाशन में बालक बोलकर या लिखकर अपने भाव स्पष्ट करता है । उच्चारित रूप कला के सन्दर्भ में अस्थायी होता है , जबकि लिखित रूप स्थायी होता है , भाषा का लिखित रूप ही हमारी समृद्धि का द्योतक है । समय - समय पर प्रचलित भाव - प्रकाशन की शैलियाँ तथा मान्य विचार आज भाषा के लिखित रूप से ही हमें उपलब्ध हो पाते हैं । 

लेखन कौशल का महत्त्व 

1 . किसी भाषा पर पूर्ण अधिकार प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक है कि पढ़ने के साथ - साथ उस भाषा को लिखा भी जाये । 

2 . आधुनिक सांस्कृतिक जीवन में भाग लेने के लिए लिखना जानना अति आवश्यक है । बिना लिखना जाने हम न तो किसी को पत्र लिख सकते हैं और न ही किसी के पत्रों का प्रत्युत्तर दे सकते हैं । दूसरे शब्दों में , समाज के विभिन्न सदस्यों से सम्पर्क स्थापित करने में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा । 

3 . बौद्धिक विकास के लिए भी लिखना सीखना आवश्यक है । हमारा बौद्धिक विकास ठीक प्रकार से तभी हो पाता है जब हम अपने विचारों को लेखन शक्ति द्वारा ठीक प्रकार से अभिव्यक्त कर लेते हैं । अभिव्यक्ति के लिए ही समाचार - पत्रों तथा विभिन्न पत्र - पत्रिकाओं में विद्वान लोग लेख लिखते हैं ।।        by आलोक वर्मा

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